Genhun ki kheti : समृद्ध फसल के लिए आधुनिक तकनीक |

राष्ट्र का पोषण हेतु समृद्ध फसल के लिए आधुनिक तकनीक से भारत में Genhun ki kheti से गेहूं उत्पादन को कायम रखना महत्त्वपूर्ण है।

किसान भाईयों गेंहूं दुनिया में सबसे अधिक उगाई जाने वाली महत्त्वपूर्ण अन्न है। वैसे गेंहूं से भोजन के कुल कैलोरी का 20 प्रतिशत ऊर्जा हमारे शरीर को उपलब्ध कराते है। अब देश में जनसँख्या बढ़ने के साथ साथ अनाज फसल के रूप में गेंहूं की मांग बढ़ती जा रही है। इसलिए भारत में गेहूं उत्पादन तकनीक पिछले कुछ वर्षों में विकसित हुई है, जिससे देश दुनिया के अग्रणी गेहूं उत्पादकों में से एक बन गया है।

इसका प्रमुख कारण भोजन में प्रमुखता से गेंहूं को शामिल करना है। भारत में गेहूं एक प्रमुख फसल है और इसका उत्पादन खाद्य सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है। क्योकि गेंहू मुख्यतः चपाती,पराठा,रवा और बेकरी उत्पाद के रूप में उपयोग किया जाता है।

वैसे Genhu ki kheti के लिए शोतोष्ण जलवायु उत्तम होती है। हमारे देश में गेंहू के कुल उत्पादन का अधिकतम उत्पादन उत्तरप्रदेश,पंजाब ,हरियाणा ,मध्यप्रदेश और राजस्थान में होता है। वैसे छत्तीसगढ़ में लगभग सभी जिलों में गेंहूं की उत्पादन किया जाता है, जिनमे से बेमेतरा ,सरगुजा ,बिलासपुर ,जांजगीर, रायपुर, दुर्ग, राजनांदगॉव, धमतरी और महासमुंद जिले में भी गेंहूं की उत्पादन की जाती है।

खेत की तैयारी –

Genhu ki kheti के लिए धान की कटाई के तुरंत बाद जैसे ही खेत में जुताई हेतु बतर आता है। खेती की २ से ३ जुताई कर पाटा चलाना चाहिए। क्योकि कम जुताई से खेत अच्छा तैयार नहीं होता है और गेंहूँ का अंकुरण कम होता है। जहाँ सफ़ेद चीटियाँ व अन्य कीट की समस्या है ,वहाँ पर एल्ड्रिन 5 प्रतिशत मिट्टी में मिलाना चाहिए इसलिए गेंहूँ की अच्छी पैदावार के लिए गर्मी में खेत की गहरी जुताई करना चाहिए। वैसे तीन वर्षों में एक बार ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करनी चाहिए।

बीजोपचार –

Genhu ki kheti के लिए इस्तेमाल बीज अच्छी अंकुरण क्षमता का होना चाहिए एवं स्वस्थ होना चाहिए। साथ ही बीज रोग जनित बीमारियों से मुक्त होना चाहिए। बीज को बोनी करने से पहले बीजोपचार करना जरुरी है ,इसलिए बीज को एग्रोसान जी. एन. से उपचारित करके बोवाई करें। इसके उपचार हेतु 100 किग्रा बीज के लिए 800 ग्राम एग्रोसान जी. एन. की आवश्यकता होती है। इससे गेंहूँ की पैदावार में 2 से 3 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की वृद्धि हो सकती है।

इसके अतिरिक्त बीज उपचार हेतु कवकनाशी विटावेक्स की 2 ग्राम मात्रा प्रति किलो बीज की दर से उपयोग कर बीजोपचार करें।

उपयुक्त उन्नत किस्में:-

किस्म अवधि
(दिनों में )
औसत उपज (क्विं/हें) विशेषताएं
एच.डब्ल्यू.2004132 -13515-20शरबती :दाने संकरे,मध्यम ,
पौध ऊंचाई 94 से.मी.
लोक -1100 -10515-20दाना मोटा व चमकदार ,मध्यम अवधि
सुजाता132 -13518-22शरबती, दाना बड़ा ,चमकदार ,गेरुआ रोग के प्रति संवेदनशील।
सी-306130 -13515-18दान शरबती एवं मध्यम आकार ,सूखा सहनशील,गेरुआ रोग संवेदनशील।
एच. आई -1500120-12520-25ये किस्म अधिक उपज वाली है एवं दाना शरबती है।
जी. डब्ल्यू. -273115 -12040-45यह किस्म मध्यम बौनी है , यह किस्म गेरुआ रोग प्रतिरोधी है ,
डी. एल. 803 (कंचन)115 -11735-37यह शरबती किस्म का गेंहूँ है और इसकी उचाई मध्यम है ,
जी. डब्ल्यू. -322120 -12538-40यह शरबती किस्म का गेंहूँ है, इसकी आकार मध्यम है ,यह किस्म गेरुआ रोग निरोधक है।
एम. पी. -4010105 -11030-35यह शरबती गेंहूँ है,यह किस्म आंशिक गेरुआ और कंडवा रोग निरोधक है , इसकी पौधे की ऊंचाई 69 सेमी है और यह शीघ्र पकने वाली किस्म है।

बीज दर –

वैसे गेंहू की खेती (Wheat farming) से अच्छी उत्पादन के लिए बीज दर भी एक महत्त्वपूर्ण कारक है। गेंहूँ बीज दर की मात्रा का निर्धारण दाने के आकार ,बोनी की समय एवं फसल अवधि के आधार पर किया जाना चाहिए। यदि अक्टूबर एवं नवम्बर में बोनी कर रहे है और 1000 दानों का वजन 40 ग्राम हो तो प्रति हेक्टेयर 100 किग्रा. बीज और यदि 1000 दानों का वजन 50 ग्राम हो तो प्रति हेक्टेयर 125 किग्रा. बीज की बोवाई करना चाहिए।

यदि दिसंबर माह में बोनी कर रहे है तो 1000 दानों का वजन 40 ग्राम पर 125 -130 किग्रा। और दानों का वजन 50 ग्राम पर 130 से 150 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर बोवाई करनी चाहिए।

बोनी की उपयुक्त विधि –

वैसे गेंहू की खेती (Wheat farming) से अच्छे उत्पादन के लिए गेंहूं की बोनी पलेवा देकर बोनी करने की अपेक्षा सूखे खेत में बोनी कर सिंचाई करना अधिक लाभकारी होती है। सूखे खेत में आवश्यकता अनुसार संतुलित उर्वरक का उपयोग कर उथली बोवाई ( 1 से 1.5 इंच ) कर सिंचाई करना चाहिए। इससे जुताई का खर्च कम हो जाता है। फसल की बढ़वार अच्छी होती है। साथ ही निंदा की समस्या कम होती है। इससे सीधे एक सिंचाई से 10 -15 दिन के समय की बचत होती है। गेंहूँ की फसल (wheat crop) बोनी कतार में किया जाना चाहिए। देरी बोनी अर्थात दिसंबर में बोई जाने वाली किस्मों की कतार की कतार दुरी 7 इंच (18 सेमी ) रखना चाहिए।


गेंहू की खेती (Genhun ki kheti) से अच्छे उत्पादन के लिए ट्रेक्टर चलित अथवा बैल चलित जीरो टिल सीडड्रिल द्वारा बोवाई की जाए तो खेत में नमी की कमी नहीं होती है,जिससे गेंहूँ का अंकुरण भी अच्छा होता है। इससे खेत के जुताई की लागत में कमी आती है। वैसे ट्रेक्टर चलित यंत्र से बोवाई की क्षमता 0.08 से 0.5 हेक्टेयर प्रति घंटा तथा बैलचलित यंत्र की क्षमता 0.08 से 0.1 हेक्टेयर प्रति घंटा होती है।

संतुलित उर्वरकों का उपयोग :-

असिंचित क्षेत्र में Genhun ki kheti के लिए नत्रजन 40 किलो,स्फुर 20 किलो, पोटाश 10 किलो और गंधक 5 किलो दर से प्रति हेक्टेयर की सम्पूर्ण मात्रा बोवाई के समय ही उपयोग करें। यदि आपके पास एक से दो सिंचाई हो तो गेंहूँ की खेती में नत्रजन 80 किलो ,स्फुर 50 ,पोटाश 30 किलो और गंधक 10 किलो प्रति हेक्टेयर देना चाहिए।

समय या देरी से बोवाई हेतु सिंचित खेती के लिए नत्रजन 120 किलो,स्फुर 40 किलो, पोटाश 30 किलो और गंधक २० किलोग्राम प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। सिचाई उपलब्ध होने गेंहूँ की फसल में स्फुर व पोटाश की पूरी मात्रा बोन के समय देना चाहिए और नत्रजन की आधी मात्रा बोनी के समय एवं बची हुई आधी मात्रा प्रथम सिंचाई के साथ यूरिया का भुरकाव करना चाहिए। इसके साथ ही अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद 4 से 5 टन प्रति हेक्टेयर खेत के तैयारी के समय डालना चाहिए।

गेहूँ की अधिक उपज प्राप्त करने हेतु मिट्टी जांच आवश्यक है तथा मिट्टी परीक्षण के आधार पर सिफारिश उर्वरक की मात्राओं का प्रयोग करना चाहिए। दी गयी तालिका के अनुसार मिट्टी परीक्षण के आधार पर सिफारिश मात्राएँ –


पोषक तत्त्वों की समन्वित मात्रा में उपयोग हेतु जिस खेत में धान फसल ली जा रही है वहाँ उर्वरक की 50 प्रतिशत मात्रा के साथ यदि 50 प्रतिशत नत्रजन को हरी खाद के द्वारा धान में दिया जावे तथा उसके उपरान्त पोषक तत्वों की 100 प्रतिशत अनुशंसित मात्रा उर्वरकों से दी जावे तो धान-गेंहूँ फसल प्रणाली से अधिकतम उत्पादकता तथा शुद्ध लाभ प्राप्त होता है। यदि हरी खाद उपलब्ध नहीं है तो 50 प्रतिशत नत्रजन को गोबर खाद से पूरा किया जा सकता है। चूँकि इन जैविक खादों के प्रयोग से मृदा के गुणों पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है।
जहाँ पर मृदा परीक्षण की सुविधा नहीं होने पर गेंहूँ की 125 किग्रा प्रति हेक्टेयर बीज दर तथा 18 सेमी कतार बुवाई करने से तथा उर्वरकों की अनुशंसित मात्रा 125 प्रतिशत एवं 5 टन प्रति हेक्टेयर गोबर खाद का उपयोग करने पर धान -गेंहूँ कृषि प्रणाली पर गेंहूं के अधिकतम उपज और शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है।

गेंहूँ फसल की सिंचाई –

गेंहूँ के उत्पादन पर प्रभाव डालने वाला मुख्य कारक सिंचाई है। सिंचाई करने के साथ-साथ जल निकासी की व्यवस्था सुचारु रूप से अनिवार्य रूप से करें। गेंहूँ फसल पर सिंचाई के बाद 4 से 6 घंटे बाद भी खेत में पानी भरा न रहे। वैसे Genhun ki kheti में 4 से 6 सिंचाईं की जरुरत होती है।

गेंहूँ फसल की क्रांतिक अवस्था प्रत्येक 21 दिन बाद प्राप्त होती है और देर से बोनी करने पर 16 से 18 दिन में क्रांतिक अवस्था आती है। कम सिंचाई उपलब्ध होने पर 21 से 42 दिन पर तथा पर्याप्त सिंचाई उपलब्ध होने पर प्रत्येक 21 दिन सिंचाई करने से अधिकतम उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।

सामान्यतः गेंहूँ की पहली सिंचाई मुख्य जड़ बनते समय यानि बोवाई के 20 से 25 दिन बाद करनी चाहिए।
दूसरी सिंचाई कल्ले फूटते समय करनी चाहिए।
तीसरी सिंचाई गाँठ बनने की अंतिम अवस्था में यानि बोने के 70 से 75 दिन बाद करनी चाहिए।
चौथी सिंचाई फूल आने के समय बोवाई के 90 से 95 दिन में करनी चाहिए।
गेंहूँ फसल में पांचवी सिंचाई दानों में दूध पड़ते समय बोन के 110 से 115 दिन बाद करनी चाहिए।
गेंहूँ की छटवीं सिंचाई दाना सख्त पड़ते समय बोने के 120 दिन बाद करनी चाहिए।
एक सिचाई में 5 से.मी. पानी लगाना चाहिए।
जहाँ पानी की कमी हो तो वहाँ तीन सिचाई अवश्य करना चाहिए। ऐसी अवस्था में पहली सिचाई बोन के 21 दिन बाद ,दूसरी सिचाई बोने के 70 दिन बाद और तीसरी सिंचाई दानों में दूध पड़ते समय बोन के 105 दिन बाद अवश्य करनी चाहिए।

पौध संरक्षण :-

रबी फसलों की सम्पूर्ण अवधि में कीट व रोग का प्रकोप रहता है। अतः किसान Genhun ki kheti में उन्नत कृषि विधियों एवं कीट व्याधि प्रबंधन अपनाकर तथा उचित मात्रा में रसायनों का समयानुकूल प्रयोग करके अपनी फसल को कीटों और रोगों से बचा जा सकते है। जिससे किसान अपने उत्पादन की मात्रा व गुणवत्ता दोनों को बढ़ोतरी कर सकते है।

(1) रोग प्रबंधन :-

1) भूरा/ नारंगी गेरूआ (रस्ट) :

यह रोग पक्सीनिया रिकान्डिटा नामक फफूँद द्वारा होता है।

लक्षण : Genhun ki kheti में इस किट्ट रोग के लक्षण मुख्यतः स्फोट के रूप में पत्ती पर ही बनते हैं, परन्तु कभी कभी यह पच्छद तथा तने पर भी बन जाते हैं। यह स्फोट या यूरीडीनियम अनियमित रूप से पत्ती पर बिखरे हुए रहते हैं। रोग की आरंभिक अवस्था में स्फोट पत्ती की ऊपरी सतह पर तथा बाद में दोनों सतह पर बन जाते हैं तथा यह स्फोट पत्ती पर सबसे अधिक संख्या में दिखाई देते हैं।

स्फोट का रंग रोग की आरंभिक अवस्था में चमकीला नारंगी तथा बाद की अवस्था में भूरे रंग का हो जाता है। रोग की शुरूआती अवस्था में यह पत्ती की बाह्य त्वचा द्वारा ढंके रहते हैं परन्तु बाद में बाह्य त्वचा फट जाती है ।इससे अनगिनत बीजाणु भूरे रंग के चूर्ण के रूप में बाहर निकलते हैं। स्फोटों के चारों ओर की पत्ती पूर्ण या आंशिक रूप से पीली पड़ जाती हैं। रोग का तीव्र प्रकोप होने पर पौधे लम्बाई में छोटे हो जाते हैं तथा रोग प्रभावित पौधों में सिकुड़े हुए दाने बनते हैं।

प्रबन्धन :-

  1. रोग निरोधक अथवा रोग सहनशील जातियों का प्रयोग :- भूरा/ नारंगी गेरूआ रोग का सबसे असरकारी और पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित उपाय रोगरोधी किस्मों को उगाना है। Genhun ki kheti में गेहूँ की उन्नत व रोगरोधी किस्मों जैसे- सी. 306, सुजाता, जे डब्ल्यू. एस. 17. रतन, जी. डब्ल्यू 190, राज 1555, अरपा सहनशील जैसे- एम पी. 4010. एच.डी. 28641इत्यादि।
  2. मिश्रित फसल :- मिश्रित फसल के रूप में गेहूँ, सरसों या तोरिया की खेती की जा सकती है।
  3. समय पूर्व बुवाई :- गेहूँ की शीघ्र पकने वाली किस्मों को उगाकर तथा देर से बोई जाने वाली फसलों की जल्दी बुवाई करके गेरुआ रोग की रोकथाम की जा सकती है। ऐसा करने से गेहूँ की बाली की दूधिया अवस्था किट्ट के रोग-प्रकोप से बच जाती है। फसल बुवाई 15 दिन पूर्व करना उपयुक्त है।
  4. उर्वरकों की उचित मात्रा :- नत्रजन की सन्तुलित मात्रा के साथ ही पोटाश की उचित मात्रा का उपयोग करना चाहिये । नत्रजन युक्त उर्वरकों का अधिक उपयोग रोग को बढ़ाने में सहायक होता है।
  5. समय पर सिंचाई :- गेंहूँ फसल को निश्चित संख्या में तथा समय पर सिंचाई करना चाहिये। आवश्यकता से अधिक सिंचाई रोग को बढ़ाने के लिये अनुकूल वातावरण तैयार करने में मदद करती है।

(2) अनावृत कंडवा (लूज स्मट) :-

लूज स्मट रोग का रोगजनक अस्टिलागो न्यूडा ट्रीटीसी या अस्टिलागो सेजेटम ट्रीटीसी फफूंद है।
लक्षण: Genhun ki kheti में इस रोग के लक्षण पौधों में बालियों निकलने के बाद ही दिखाई देते हैं जिसके कारण शुरुआत में संक्रमित व स्वस्थ पौधों में अन्तर करना कठिन होता है। रोगग्रस्त पौधों की बालियों में सामान्य दानों के स्थान पर काले रंग का चूर्ण पाया जाता है।

यह काले रंग का चूर्ण रोगजनक कवक के कंड बीजाणुओं का समूह होता है। शुरूआती अवस्था में यह बीजाणु एक पतली, सफेद-चमकीली झिल्ली द्वारा ढके होते हैं, जो कुछ समय बाद फट जाती है, जिससे कंड बीजाणु हवा द्वारा रेचिस से अलग होकर वातावरण में फैल जाते हैं। पुष्प के सभी भाग तथा तुष (ग्लूम्स) कंड बीजाणुओं में बदल जाते हैं। तुष के सिरे इस रोग के संक्रमण से अपरिवर्तित रहते हैं कंडबीजाणुओं के बालियों के रेचिस से अलग हो जाने पर रेचिस एक नग्न वृन्त के रूप में दिखाई देता है।

प्रबन्धन :-

  1. गेहूँ की रोगरोधी किस्मों को उगाना चाहिये। जैसे- कुन्दन, मालवीय 206, मालवीय 213, एच.डी. 2203, 2221 आदि किस्म लूज स्मट रोग के प्रति रोगरोधी है ।
  2. बीजों का चयन रोगरहित क्षेत्रों की फसल से करना चाहिये तथा जहाँ तक सम्भव हो, प्रमाणित बीजों का चयन करना चाहिये।
  3. चूँकि इस रोग का रोगजनक कवक अन्तः बीजजनित है, अतः चयनित बीजों को सर्वांगी कवकनाशी- कार्बोक्सीन ( वीटावेक्स)/ बेनोमाइल (बेनलेट) आदि से 2.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करना चाहिये। वीटावेक्स पावर (कार्बोक्सीन+ 7 थायरम ) द्वारा 2.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करने पर बीजों की सतह पर तथा अन्दर उपस्थित दोनों तरह के रोगजनक के भाग नष्ट हो जाते हैं।
  4. बीजों को सौर उपचार विधि द्वारा उपचारित किया जा सकता है। इस विधि में मई के अंतिम या जून माह के प्रथम सप्ताह में कड़ी धूप वाले दिनों में गेहूँ के बीजों को 4 घण्टे (प्रातः 6 से 10 बजे तक) के लिये पानी में डुबोकर रखते हैं।तत्पश्चात 6 घण्टे (दोपहर 10 से 4 बजे तक) के लिये पतली परत में पक्के में फर्श पर कड़ी धूप में सुखाकर फिर बीजों को संग्रहित कर ले। ऐसा करने से पहले बीज में उपस्थित रोगजनक का कवकजाल पानी भिगोकर रखने से सक्रिय अवस्था में आ जाता है, उसके बाद कवकजाल सूर्य की किरणों के ताप द्वारा नष्ट हो जाता है, जिससे बीज रोग संक्रमण रहित हो जाते हैं।
  5. पौधों में बालियाँ निकलते समय खेत का नियमित रूप से निरीक्षण करते रहना चाहिये तथा रोगग्रस्त बालियाँ दिखाई देते ही उन्हें पॉलीथिन की थैली में एकत्र कर नष्ट कर देना चाहिये।

(3) पर्ण भीर्णता या अंगमारी (लीफ ब्लाइट) :-

लीफ ब्लाइट रोग का रोगजनक आल्टरनेरिया ट्रीटीसिना फफूँद है।

लक्षण :- Genhun ki kheti में अंगमारी रोग के प्रारंभिक लक्षण 45 से 60 दिन बाद गेहूँ के पौधों पर दिखाई देते हैं। लक्षण पौधों की निचली पत्तियों पर छोटे, अण्डाकार, हल्के पीले धब्बों के रूप में प्रकट होते हैं। यह धब्बे रोगग्रसित पत्तियों पर बिखरे हुए होते हैं,आकार बढ़ने पर गहरे भूरे रंग के तथा टेढ़े-मेढ़े हो जाते हैं .

और आपस में मिलकर पत्ती का अधिकांश भाग ढक लेते हैं तथा पत्ती झुलसी हुई दिखाई देती है। रोग की उम्र अवस्था में पर्णच्छद, बाली, तुष (ग्लूम) तथा सींकुर (ऑन) पर भी संक्रमण होता है। वातावरण नम होने पर संक्रमित भागों पर रोगजनक के बीजाणुओं का काला चूर्ण दिखाई देता है तथा रोगग्रस्त पत्तियाँ मरने लगती हैं।

प्रबन्धन :

  1. रोगरोधी किस्में जैसे-सोनक, जनक, एच.पी. 1748, 1832, 1761 की बोवाई करनी चाहिये।
  2. खेत में पड़े फसल के रोगग्रस्त अवशेषों को जलाकर नष्ट कर देना चाहिये।
  3. प्रमाणित बीज का उपयोग बुवाई के लिये करना चाहिये ।
  4. बीजों को 4 घण्टे ठण्डे पानी में डुबाने के बाद 52° से वाले गर्म पानी में 10 मिनट तक उपचारित कर बोना चाहिये।
  5. संतुलित उर्वरकों का उपयोग करना चाहिये।
  6. बीजों को वीटावेक्स पावर या साफ सुपर (2.5 ग्राम / किलो बीज की दर से उपचारित कर बोआई करें।
  7. खड़ी फसल में रोग के लक्षण दिखते ही पहला छिड़काव मेन्कोजेब / क्लोरोथेलोनिल / जिनेब/ ताम्रयुक्त दवा (3 ग्रा./ली. पानी) या कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन)/ बेनामाइल (बेनलेट) / थायोफिनेट मिथाइल (टापसिन एम) 1.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में किसी एक कवकनाशी दवा का छिड़काव करना चाहिये तथा आवश्यक होने पर 10 से 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव दोहराया जा सकता है।

2 कीट प्रबन्धन :-

गेहूँ की खेती(Genhun ki kheti) से अच्छी उत्पादन प्राप्त करने के लिए गेंहूँ फसल में दीमक, तना मक्खी (शूट लाई). तनाछेदक, भूरी चीटियां, माहो, आर्मी वर्म्स, फौजी कीट की नियंत्रण पर भी ध्यान देना आवश्यक है ,क्योकि कभी-कभी विपरीत मौसम में प्रकोप हो जाते हैं।इसलिए इनके प्रारम्भिक नियंत्रण आवश्यक है।

(अ) दीमक नियंत्रण :-

Genhun ki kheti में दीमक की नियंत्रण हेतु 500 मि.ली. क्लोरपायरीफॉस 20 ई.सी. नामक दवाई को 5 लीटर पानी में घोलकर 1 क्विं. बीज को उपचारित कर प्रयोग में लाएँ। उपचारित बीज को एक रात सुखाने के उपरान्त बुवाई करने के लिये उपयोग में लाएँ । खड़ी फसल में दीमक के नियंत्रण के लिए क्लोरपायरीफॉस 20 ई.सी. 4 लीटर प्रति हेक्टेयर का उपयोग सिंचाई करते समय करें।

(ब) तना मक्खी:-

genhu ki kheti में तना मक्खी के नियंत्रण के लिए फसल की बुवाई मध्य नवम्बर से मध्य दिसम्बर तक करें। अधिक प्रकोप होने पर मिथाइल डिमेटोन 25 ई.सी. दवाई के 750 मि.ली. मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव तब करें, जब पौधों की गोभ सूखती दिखाई पड़ने लगे। छिड़काव 15-20 दिन के अन्तराल पर किया जा सकता है।

(स) भूरी चीटियाँ :-

genhu ki kheti में गेंहूँ फसल पर भूरी चींटियों का प्रकोप होने पर और आवश्यकता पड़ने पर क्लोरपायरीफॉस 20 ई. सी., 1.5 ली. प्रति हेक्टेयर या मिथाइल आक्सीडेमेटान 25 ई.सी. 650 मि.ली. प्रति हेक्टेयर उपयोग में लाएँ।

कटाई एवं गहाई :-

गेंहूँ फसल पकने पर शीघ्र कटाई करें अन्यथा दाने गिरने से उत्पादन में कमी आएगी। अपने उत्पाद को छानकर मिट्टी,कचरा आदि निकाल दें व ग्रेडिंग कर लें। इससे बाजार में अच्छा मूल्य मिलेगा।

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