masur ki unnat kheti |मसूर की खेती |

masur ki unnat kheti (मसूर की खेती) मुख्य रूप से उत्तरप्रदेश,बिहार,राजस्थान व मध्यप्रदेश में की जाती है| इसके अलावा छत्तीसगढ में भी मसूर की उन्नत तकनीक से खेती मुख्यतः दुर्ग,कवर्धा,राजनांदगाव,बिलासपुर,बेमेतरा आदि जिलों में की जाती है| किसान भाई इसकी भरपूर पैदावार लेने के लिए मसूर की उन्नत तकनीक अपनाएं |

जलवायु –

masur ki unnat kheti (मसूर की खेती) प्रायः रबी मौसम में किया जाता है |मसूर एक दीर्घ दीप्तिकाली पौधा है इसकी खेती उपोष्ण जलवायु के क्षेत्रों में जाडे के मौसम में की जाती है।

इसे समुंद्र तल से लगभग 3000 मीटर की ऊंचाई वाले क्षेत्र में सफलतापूर्वक किया जाता है | किन्तु अत्यधिक ठण्ड व पाले की स्थिति में इसकी उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है |

भूमि का चयन एवं खेत की तैयारीः-

masur ki unnat kheti (मसूर की खेती)  प्रायः सभी प्रकार की भूमियों मे की जा सकती है। किन्तु डोरसा, कन्हार, दोमट एवं बलुअर दोमट भूमि सर्वोत्तम होती है। जल निकास की उचित व्यवस्था वाली काली मिट्टी मटियार मिट्टी एवं लैटराइट मिट्टी में इसकी अच्छी खेती की जा सकती है।

हल्की अम्लीय (जिसका 4.5-8.2 पी.एच.मान हो ) की भूमियों में मसूर की उन्नत तकनीक से खेती की जा सकती है। गहरी मध्यम संरचना, सामान्य जलधारण क्षमता की जीवांष पदार्थयुक्त जमीन इसकी खेती के लिए सर्वोत्तम होती है।

masoor ki unnat kheti (मसूर की खेती) एवं अच्छी पैदावार हेतु खेत की दो से तीन बार जुताई कर पाटा चलाये | गोबर की खाद या नाडेप या वर्मी कम्पोस्ट खाद उपलब्ध होने पर पांच गाडी खाद जुताई के समय खेत में डालें |

यदि माध्यम अम्लीय भूमि हो तो एक से डेढ़ तन प्रति हेक्टर की दर से चुना अंतिम जुताई के पूर्व मिलाकर तीन दिन इंतजार करें |

masur ki unnat kheti

उन्नत किस्मों के बीज 30 से 35 कि.ग्रा. प्रति हेक्टर की आवश्यकता होती है | विलम्ब से बोवाई या सामान्यतः बीज की मात्रा 40 कि.ग्रा. प्रति हें. बोनी चाहिए | उतेरा बुवाई हेतु 50 कि.ग्रा. बीज प्रति हे. बोनी के लिये पर्याप्त होती है। बीज का आकार छोटा होने पर यह मात्रा 35 किलों ग्राम प्रति हें. होनी चाहियें। बडें दानों वाली किस्मों के लिये 50 कि.ग्रा. प्रति हें. उपयोंग करें।

सामान्य समय में बोआई के लिये कतार से कतार की दूरी 30 सें. मी. रखना चाहियें। देरी से बुआई के लिये कतारों की दूरी कम कर 20.25 सें.मी. कर देना चाहियें एवं बीज को 5.6 सें.मी. की गहराई पर उपयुक्त होती है।

बीजोपचार:-

स्वस्थ बीजों को बुवाई के पूर्व बीज जनित रोगों से बचाव के लिये 2 ग्राम थाइरम +1 ग्राम कार्वेन्डाजिम से एक किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर बोआई करनी चाहियें। इसके बाद बीजों को राइजोबियम कल्चर एवं पीएसबी कल्चर प्रत्येक को 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर तुरंत बोवाई करें |उपचारित बीजों को हमेशा छायादार स्थान में ही रखें|

बुआई का समय:-

masur ki unnat kheti (मसूर की खेती) के लिए असिंचित अवास्था में नमी उपलव्ध रहने पर अक्टूवर के प्रथम सप्ताह से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक बोनी करना चाहियें। सिंचित अवस्था में मसूर की बोनी 15 अक्टूबर से 15 नवम्वर तक की जानी चाहिये। ज्यादा देरी से बोवाई करने पर कीट-व्याधि का प्रकोप अधिक होता है |

पौषक तत्व प्रबंधनः-

मसूर की उन्नत तकनीक (advanced technology of lentils) में संतुलित पोषक तत्व प्रबंधन को अपनाना आवश्यक है | इसके लिए मृदा की उर्वरता एवं उत्पादन के लिये उपलब्ध होने पर 15 टन अच्छी सडी गोबर की खाद व 20 कि.ग्रा. नत्रजन तथा 50 कि.ग्रा. स्फुर / हें. एवं 20 कि.ग्रा./ हें. पोटास का प्रयोग करना चाहिये।

निंदाई-गुडाई:-

मसूर फसल की अच्छी उपज लेने के लिए खेत को प्रारंभिक अवस्था से लेकर 45 दिनों तक निंदा मुक्त रखना चाहिए | खेत में खरपतवार उगने पर हैन्ड हो या डोरा चलाकर खरपतवार नियंत्रण करना चाहियें। अधिक खरपतवार की प्रकोप पर खरपतवार नियंत्रण के लिये रासायनिक निंदानाशक दवा बुआई के 15 से 25 दिन बाद क्यूजेलोफाप 0.700 लि./ हें. प्रयोग करना चाहियें।

सिंचाई:-

वैसे तो मसूर की खेती सामान्यतः वर्षा आधारित क्षेत्रों में किया जाता है | किन्तु क्रांतिक अवस्था में एक या दो बार सिंचाई हो जाने पर अच्छी उपज प्राप्त हो जाता है | सिंचाई उपलब्ध होने की दशा में पहली सिंचाई शाखा नोकलते समय अर्थात बुवाई के 30-35 दिन बाद करें | दूसरी सिंचाई आवश्यकता पड़ने पर बुवाई के 70-75 दिन में करें |

ध्यान रहे सिंचाई करते समय पानी अधिक न हो,पानी अधिक होने से फसल नुकसान हो सकती है |यथासंभव स्प्रिंकलर से सिचाई करें | स्प्रिंकलर से सिंचाई करते समय ध्यान रखें जल प्रयोग की दर अवाशरण दर से कम हो या खेत में स्ट्रिप बनाकर हल्की सिंचाई करें |

पौध संरक्षण :-

मसूर की उन्नत तकनीक (Advanced technology of lentils) से खेती के लिए फसल पर लगने वाले कीट व रोगों के नियंत्रण के लिए समय पर उपचार करना आवश्यक है –

कीट प्रबंधन :-

  1. माहों (Aphids) –

पहचान – इस कीट का वैज्ञानिक नाम ” एफिड क्रेक्सीवोरा” (Aphid Craxivora) है | इसकी पंख रहित कीट गहरे भूरे या काले रंग के होते है , परन्तु पंखयुक्त कीट हरे रंग लिए होते है | इस कीट की लम्बाई लगभग 1.5 से 2 .0 मिमी लम्बे होते हैं |

नुकसान के तरीका – इस कीट के शिशु और प्रौढ़ दोनों ही झुण्ड में रहते है और झुण्ड में ही पौधों के विभिन्न भागों से रस चूसते है | जिससे पौधें छोटे रह जाते हैं और पौधों की बढवार रुक जाती है | इस कीट द्वारा मधु रस विसर्जित करने से पौधें की ग्रसित भाग चिपचिपे हो जाते हैं | बाद में इस चिपचिपे भाग पर काली फफूंद लग जाती है | इस कीट से प्रभावित पौधों में फलियाँ कम लगाती है | फलियों में दाने बिलकुल नहीं पड़ते यदि पड़ते भी है, तो दोनों का आकार छोटे व कम संख्या होते हैं|

नियंत्रण – इसके नियंत्रण हेतु मिथाइल आक्सीडिमेटान 25 ई.सी. घोल 1.5 मि.ली. या डायमिथोएट 30 ई.सी दवा का 1-1.5 मी.ली. प्रति लीटर पानी की दर से प्रयोग करें |

  1. चने की इल्ली (हेलियोथिस आर्मीजेरा)-

पहचान – इसके प्रौढ़ कीट हलके भूरे रंग के होते हैं | इस कीट की इल्लियाँ पीले ,हरे,गुलाबी,नारंगी ,भूरे या काले रंग में विभिन्न रंग में पी जाती है | प्रौढ़ कीट के अगले पंख में सेम के बीज के समान एक-एक काला धब्बा रहता है |

नुकसान का तरीका – इनके मादा कीट पौधे के कोमल पत्तियों को खाकर जीवित रहती है | इसकी छोटी इल्लियाँ हरे पदार्थ को खुरचकर खाती है तथा फलियाँ आने पर छोटी इल्लियाँ फलियों को छेद करके फली में घुसकर खाती है | इसकी इल्लियाँ पत्तियां .बोडी, फूलों तथा फलियों को नुकसान पहुचाती हैं |

नियंत्रण – इसकी रोकथा के लिए क्विंनालफास 25 ई.सी. 1 मी.ली. प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर 15 दिनों के अन्तराल में छिडकाव करें |

  1. मसूर का फली बेधक (इटीएला जिंकेनेला) –

पहचान – इस कीट का प्रौढ़ भूरे रंग के होते है | इस कीट के अगले पंख के अग्रभाग के किनारे-किनारे फीकी पट्टी रहती है | इसके पिछले पंख धारदार तथा अल्पपारदर्शी होते है | इसकी छोटी इल्लियाँ दुधिया सफ़ेद रंग एवं बड़ी इल्लियाँ नारंगी रंग की होती हैं |

नुकसान का तरीका – मसूर की फली बेधक का नुकसान के तरीका चने की इल्ली की तरह ही है | इसकी इल्लियाँ फली को छेदकर बढ़ाते हुए दाने को खाती है | इसके एक इल्ली अपने जीवनकाल में कई फलियों को नुकसान पहुंचती हैं|

नियंत्रण – इसकी रोकथा के लिए क्विंनालफास 25 ई.सी. 1 मी.ली. प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर 15 दिनों के अन्तराल में छिडकाव करें |

रोग प्रबंधन :-

मसूर फसल में प्रमुख रूप से उकठा और गेरुआ रोग का प्रकोप होता है | उकठा रोग के नियंत्रण के लिए रोग रोधी किस्मों का उपयोग करें | बुवाई के पहले बीजोपचार अवश्य करें |

किसान भाइयों आइये जानते है मसूर फसल पर लगने वाले प्रमुख रोग के बारे में –

  1. म्लानि या उकठा रोग (Wilt) –

इस रोग का रोगजनक फ्युजेरियम आक्सिसपोरम (oxysporum lentis) फफूंद है|

लक्षण– इस रोग के लक्षण फसल बुवाई के लगभग 15 से 20 दिन बाद दिखाई देना प्रारम्भ होते हैं | इस रोग के प्रकोप होने से मुख्यतः पौधों की वृद्धि रुक जाती है | संक्रमित पौधों की पत्तियां पीली पड़ जाती है एवं पौधें की उपरी भाग निचे झुक कर सुखने लगती है | संक्रमित पौधे अंत में सुखकर मर जाती है |

संक्रमित पौधें की जड़ें अविकसित रह जाती है और हल्के भूरे रंग के दिखाई देती है | इसका मुसला जड़ का निचला भाग भी नष्ट हो जाता है |यदि इसके फसल को पुष्पपुंज अवस्था में काटकर निरीक्षण किया जाये तो इसकी कुछ जाईलम वाहिकाओं की भित्तियां हलके भूरे रंग की दिखाई देती है और रोगजनक कवक भित्तियां के आसपास फैले हुए मिलते है |

प्रबंधन –

  1. सदैव रोगरहित प्रमाणित बीज का उपयोग करना चाहिए |
  2. खेतो की साफ सफाई रखनी चाहिए |
  3. लगातार एक ही खेत में मसूर की फसल नहीं लेनी चाहिए | कम से कम 3 वर्ष के अंतर में वोन चाहिए |
  4. हमेशा फफुन्द्नाशक दवा से बीजोपचार करके बोनी चाहिए |
  5. उकठा रोग सहनशील किस्मों को बोनी चाहिए | जैसे – लेन्स-40७६, पन्त एल -406 आदि |
  1. जड़ सड़न –

लक्षण – यह रोग मसूर के पौधों में देरी से दिखाई देता है | रोग ग्रसित पौधे खेत में जगह -जगह पर टुकड़ों में दिखाई देता है | रोग ग्रसित पौधों के पत्ते पीले पड़ जाती है तथा पौधे सुख जातें हैं | ग्रसित पौधों की जड़ें काली पड़ जाती है | पौधों को उखाड़ने पर जड़ें टूट जाती है और जड़ें जमीन में ही रह जाती है |

प्रबन्धन –

  1. गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करें |
  2. खेत में अच्छी सड़ी हुई गोबर खाद का प्रयोग करें |
  3. संतुलित एवं समन्वित मात्रा में खाद और रासायनिक उर्वरक का प्रयोग करें |
  4. बीजों को फफूंद नाशक दवा से उपचार कर बोवाई करें|
  5. रोगरोधी एवं रोग सहनशील किस्मों का प्रयोग करें |

कटाई –

मसूर की फसल पककर पीली पड़ जाने पर कटाई कर लें | पककर ज्यादा सूखने पर डेन और फल्लियाँ झड़ने लगती है | इससे उपज प्रभावित हो जाती है | इसलिए समय पर कटाई कर लें |कटाई करके साफ खलिहान पर गहाई करें एवं 9-10 प्रतिशत नमी रहने तक सुखाकर भण्डारण करें |

masur ki unnat kheti  (मसूर की खेती) से 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर दाना उपज प्राप्त हो जाती है एवं 30-40 क्विंटल भूसे की उपज प्राप्त होती है |

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