किसान भाईयों ,सरसों की फसल के उत्पादन को सुरक्षित रखने और बढ़ाने के लिए समुचित पौध संरक्षण (plant protection) उपायों को जानना आवश्यक है। अपने सरसों के खेतों को मजबूत करने के लिए एकीकृत कीट प्रबंधन, प्राकृतिक मित्र कीटों और रोग प्रतिरोधी किस्मों जैसी रणनीतियों के बारे में इस ब्लॉग पोस्ट में विस्तार से चर्चा करेंगे। तो कृपया इस लेख को पूरा जरूर पढ़ें।
दोस्तों,सरसों रबी मौसम में तिलहन की महत्त्वपूर्ण फसल है। सरसों फसल कीट-व्याधि (plant protection in mustard crop) प्रकोप से उत्पादन पर विपरीत असर पड़ता है।सरसों की बम्फर उत्पादन के लिए पौध संरक्षण (plant protection)उपाय सही समय पर करना जरुरी है।
सरसों की फसल वर्तमान में फूल-फली की अवस्था में चल रही है। इसलिए अधिक उत्पादन लेने के लिए सरसों फसल पर पौध संरक्षण कैसे करें ? अधिक महत्त्वपूर्ण है। तो कीट/रोग के आक्रमण की स्थिति में निरीक्षण और उपाय तत्परता से किया जाना जरूरी होगा।आईये जानते है सरसों फसल पर पौध संरक्षण(plant protection in mustard crop) कैसे करें ?
plant protection in mustard crop:-
अधिक उपज और स्वस्थ फसल के लिए अपनी सरसों की फसल को कीटों और बीमारियों से बचाना महत्वपूर्ण है। एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम) अंतर्गत प्राकृतिक मित्र कीट , फसल चक्र और प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग से सरसों की फसल में पौध संरक्षण (plant protection in mustard crop) आसानी से कर सकते है।
अपने फसल नियमित निरीक्षण से समस्याओं की शीघ्र पहचान करने में मदद मिलती है। जब आवश्यक हो तो रासायनिक उपयोग को कम करते हुए जैविक कीटनाशक या जैविक नियंत्रण करें। रोग फैलने से रोकने के लिए खेतों को साफ रखें और संक्रमित पौधों को हटा दें। अच्छी सिंचाई पद्धतियाँ और संतुलित उर्वरक भी फसल के लचीलेपन को बढ़ाते हैं। यह सरसों की फसल में plant protection की बेहतर उपाय हो सकते है।इन सरल और टिकाऊ तरीकों को अपनाकर, आप कृषि स्थिरता को बढ़ावा देते हुए सरसों की फसल से अच्छी उपज सुनिश्चित कर सकते हैं।
सरसो फसल पर रोग नियंत्रण :-
(1) पर्ण झुलसन (आल्टरनेरिया ब्लाइट) रोग :
इस रोग के लक्षण पत्तियों, तनों एवं फलियों पर दिखाई देते हैं। सर्वप्रथम पुरानी पत्तियों पर भूरा-काला चिन्ह बनता है जो बाद में बड़ा होकर स्पष्ट धब्बा बनता है, जिसमें वलय बना होता है और धब्बों की संख्या अधिक होती है। ये धब्बे पूरी पत्ती में फैल जाते हैं तथा पूरी पत्ती धब्बों से भरी दिखाई देती है। ये धब्बे मध्य एवं ऊपर की पत्तियों पर भी बनते हैं।
रोग की तीव्र अवस्था में पत्तियाँ झुलस कर गिर जाती हैं। इस रोग के धब्बे फलियों पर भी सुस्पष्ट गोल से लम्बवत, काले रंग के बनते हैं, जो बाद में आपस में मिलकर पूरी फली में फैल जाते हैं। इसके कारण धब्बे के नीचे के अपरिपक्व बीज नष्ट हो जाते हैं। इनको आसानी से देखा जा सकता है।
इस रोग के कारण 10-70% तक का नुकसान होता है। इस प्रकोप से बचने के लिये बीजों को सदैव उपचारित करके बोना चाहिये। फसल पर प्रकोप होने पर डायथेन एम-45 (0.3%) का 2 – 3 बार 8-10 दिन के अन्तर पर आवश्यकतानुसार छिड़काव करें या प्रोपीकोनाजोल दवा 1 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोलकर फसल पर 15 दिन के अन्तर से 2-3 बार छिड़काव करना चाहिये।
(2)सफेद गेरुआ रोग :-
इस रोग का संक्रमण बाहय और अन्त दैहिक (सिस्टेमिक) होता है। बाह्य रूप में प्रकोप होने पर इसके लक्षण पत्तियों की निचली सतह पर सफेद या मलाई के समान उभरे हुये फुन्सियों के रूप में परिलक्षित होते हैं, जिनका आकार 1 से 2 मिमी होता है। इसके पश्चात ये फुन्सियाँ आपस में मिलकर एक बड़े चकत्ते का रूप ले लेती है।
फुन्सियाँ पत्तियों की निचली सतह पर बिखरी हुई होती है। ऊपरी सतह पर फुन्सियों के ठीक विपरीत उसी आकार के पीले धब्बे बनते हैं, जिसके कारण रोग को आसानी से पहचाना जा सकता है। जब ये फुन्सियों पूर्ण विकसित हो जाती हैं, तब ये फूट जाती है तथा चाक पाउडर के समान बीजाणु (स्पोर) निकलते हैं, जो रोग फैलाने में सहायक होते है। रोगी पत्तियों पर फुन्सियों जब पुरानी हो जाती है, तब फुन्सियों के चारों ओर मृत उतकों का घेरा बन जाता है।
जब रोग का संक्रमण तने के सहारे फूल अवस्था में होता है, तब यह दैहिक होता है और इसके कारण तने का अग्र भाग मोटा एवं फूल जाता है। संक्रमित फूल गुच्छे के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। फूल हरे रंग के हो जाते हैं तथा फूल के जननीय भाग पत्ती का रूप धारण कर लेते हैं एवं लम्बाई व मोटाई बढ़ जाती है।
यह रोग पौधे को कम उम्र में ही कभी-कभी संक्रमित कर देता है, जिसके कारण पौधा छोटा, असामान्य एवं कमजोर हो जाता है। इस रोग के कारण 60% तक नुकसान हो जाता है। इस रोग की रोकथाम हेतु कॉपर ऑक्सी क्लोराइड 3 ग्राम या मेटालेक्सिल 2 ग्राम प्रति लीटर की दर से पानी में घोल बनाकर 600-700 लीटर पानी प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें।
(3) भभूतिया रोग (पाउडरी मिल्ड्यू):-
यह रोग पत्तियों की दोनों सतह पर सफेद चूर्ण के सदृश्य दिखाई देता है। ये सफेद चकत्ते फफूँद के कवकजाल व बीजाणु होते हैं, जो उपयुक्त वातावरण मिलने पर आपस में मिलकर सम्पूर्ण पत्तियों और तनों को ढँक लेते हैं, जिससे पौधे की बढवार कम हो जाती है। फलियाँ भी कम बनती हैं।
रोग की प्रारम्भिक अवस्था में फसल की हरी फलियों पर भी सफेद चकत्ते बनते हैं, जो बाद में फलियों का पूरा सफेद कर देते हैं। इस रोग से संक्रमित फलियों का आकार छोटा, पतला तथा दानों का आकार छोटा एवं सिकुडा हुआ होता है। इस रोग का संक्रमण सिंचित फसल में ज्यादा होता है। रोग नियंत्रण हेतु घुलनशील गंधक 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर फसल पर 600-700 लीटर घोल का छिड़काव दो बार करें।
(4)मृदुरोमिल रोग (डाउनी मिल्ड्यू) :-
इस रोग का संक्रमण पौधां के सभी ऊपरी भागों में होता है परन्तु पत्तियों और पुष्पक्रम पर अधिक पाया जाता है। रोग का प्रकोप तीव्र होने पर पत्ती सूख जाती है तथा पुष्पक्रम मोटा होकर विकृत हो जाता है एवं पुष्प के सभी भाग हरे तथा मोटे हो जाते हैं।
पुष्पक्रम पर फलियों नहीं लगती है, पौधे छोटे रह जाते हैं। सरसों की फसल में पौध संरक्षण (plant protection in mustard crop) एवं बचाव हेतु बीजों को रिडोमिल एस. डी. नामक फफूंदनाशक दवा 6 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिये तथा खड़ी फसल में प्रकोप होने की अवस्था में मेटालेक्सिल एम.जेड.-72 डब्ल्यू.पी. दवा का 0.2 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर 10-15 दिन के अन्तराल पर आवश्यकतानुसार 2-3 बार छिड़काव करें या ताँबायुक्त दवा जैसे- कॉपर ऑक्सी क्लोराइड दवा 3 ग्राम/लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
सरसो फसल में कीट प्रबन्धन :-
दोस्तों सरसों की उपज को बढ़ाने और अच्छी क्वालिटी प्राप्त करने के लिए समुचित कीट प्रबंधन (pest management) करना जरुरी है। इसलिए सरसों फसल में टिकाऊपन बनाने के लिए हमें नाशक जीवों और रोगों की पहचान करना आवश्यक है। तभी हम समय में प्रारम्भिक नियंत्रण के उपाय कर। क्योकि सरसों की उपज प्रभावित करने में कीट और रोग का प्रकोप एक प्रमुख समस्या है।
इस फसल को कीटों एवं रोगों से काफी नुकसान पहुंचता है जिससे कारण उपज में काफी कमी हो सकती है। यदि समय रहते इन रोगों एवं कीटों का नियंत्रण कर सरसों के उत्पादन में बढ़ोत्तरी की जा सकती है। तो आईये है चेंपा या माहू, आरामक्खी, चितकबरा कीट, जाली इल्ली ,पत्र सुरंग आदि सरसों के मुख्य नाशी कीट पहचान और नियंत्रण के उपाय हैं।
(1) माहो कीट:-
इस कीट के शिशु और वयस्क दोनों ही सरसों फसल के लिए हानीकारक अवस्थाएँ हैं। ये दोनों ही सरसों पौधों की जड़ों को छोड़कर शेष सभी भागों से रस चूसकर हानि पहुँचाते हैं। सरसों फसल पर माहों का प्रकोप फूल लगने से प्रारम्भ होकर फसल पकने तक रहता है। जिसके कारण ग्रसित पत्तियाँ मुड़ जाती हैं और पौधे कमजोर और रोगग्रसित दिखाई देते हैं।
इन कीटों द्वारा विशेष प्रकार के मधुरस पत्तियों पर छोड़ा जाता है ,जो काली फफूँद के पनपने में सहायक होता है, जिससे पौधों की भोजन के लिए प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में बाधा होती है। इससे ग्रसित फलियों में कमजोर और सिकुड़े हुये बीज बनते हैं। इसमें तेल की मात्रा कम हो जाती हैं।
नियंत्रण:-
- यदि क्षेत्र में सरसों फसल पर माहों की प्रकोप अधिक होती है ,तो इसके अपेक्षा राई की खेती करें।
- सरसों की बोनी समय पर 25 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक तथा 15 सितम्बर तक तोरिया की बोनी करें।
- सरसों की कीट सहनशील किस्में जैसे- आर.डब्ल्यू-1-1, पी.वाय.एस.-842, बायो-464, जे.एम.एम.-1 का चुनाव करें।
- सरसो की पुष्पावस्था एवं फलीवस्था के समय पर्याप्त सिंचाई देने से माहो प्रकोप सहने की क्षमता में वृद्धि होती है।
- सरसो की खेती में रासायनिक खादों का सन्तुलित प्रयोग करें। पोटाश 25 किलो प्रति हेक्टेयर देने से कीट प्रकोप की सहनशीलता में वृद्धि होती है।
- सरसों पर जैविक नियंत्रण हेतु माहो परमक्षी (लेडी बर्ड बीटल, सिरफिड या क्रायसोपा) या माहो परजीवी (डायरेटस रेपी) का संरक्षण करें।
- सरसों फसल पर अधिक कीट प्रकोप होने की स्थिति में रासायनिक नियंत्रण के लिये मिथाइल ऑक्सीडेमेटान 25 ईसी या डायमिथोएट 30 ईसी का 750 मिली दवा का 500 लीटर पानी में घोल को प्रति हेक्टेयर में 10-15 दिन के अन्तर पर आवश्यकतानुसार दो से तीन बार बदल कर दवाई का छिड़काव करें)
(2)आरा मक्खी:-
सरसों फसल के लिए आरा मक्खी की ग्रब अवस्था हानिकारक होती है। ग्रब पौधों की कोमल पत्तियों को खाकर उसमें छेद बना देते हैं, जिससे पत्तियाँ सूखने लगती हैं और पौधे की वृद्धि रुक जाती है। जालीदार पत्तियों और छोटे पौधों का सूखना इस कीट के प्रकोप के लक्षण हैं। बड़े पौधों में प्रकोप होने पर कलियों की संख्या कम हो जाती है।
नियंत्रण के उपाय :-
- सरसों फसल का निरिक्षण करते हुए सुबह के समय इल्लियों को हाथ से पकड़कर नष्ट करें।
- नियमित रूप से निंदाई-गुडाई करते रहें ताकि कीट की विभिन्न अवस्थाएँ नष्ट हो सकें।
- फसल की कटाई के उपरान्त भूमि की गहराई में जुताई करें।
- रासायनिक नियंत्रण हेतु इंडोक्साकार्ब अच्छा नियंत्रण प्रदान करता है। यह लाभकारी कीड़ों के लिए भी कम हानिकारक है। अनुशंसित खुराक 50-75 ग्राम प्रति हेक्टेयर तक होती है।
- लैम्ब्डा-साइहलोथ्रिन: एक सिंथेटिक पाइरेथ्रोइड जो सॉफ्लाई लार्वा को तुरंत नष्ट कर देता है। हालाँकि, यह लाभकारी कीड़ों के लिए हानिकारक हो सकता है। खुराक दरें 20-40 ग्राम प्रति हेक्टेयर के बीच उपयोग करें।
(3) पेन्टेड बग:-
पेन्टेड बग कीट की क्षति अवस्थाएँ निम्फ एवं वयस्क दोनों हैं। दोनों पौधे के विभिन्न भागों से रस चूसकर पौधों को कमजोर कर देते हैं, जिससे फसल की गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। जिस स्थान पर कीट पौधे से रस चूसता है, वहाँ पर काली फफूँद का निर्माण हो जाता है एवं प्रकोपित पौधा रोगी दिखाई देता है और उसकी वृद्धि रुक जाती है।
प्रकोपित पौधे में फूल एवं फलियाँ कम लगती हैं तथा बीजों में तेल की मात्रा भी कम हो जाती है। सरसों फसल में अच्छी उपज हेतु समय पर पौध संरक्षण (plant protection ) आवश्यक है।
Plant protection measures:-
- सरसों के ऐसे पौधे, जिन पर कीट लगा हो, उन पौधों को किसी चौड़े मुँह वाले बर्तन में मिट्टी का तेल व पानी भरकर उसमें हिला दें, जिससे कीट बर्तन में गिरकर मर जाते हैं।
- खलिहान पर कटी हुई फसल को अधिक दिनों तक नहीं छोड़ना चाहिये।
- सरसों खेत के आसपास उग रहे खरपतवार को नष्ट करें।
- कीटग्रस्त फसल पर डायमिथोएट 30 ई.सी. की 1 ली मात्रा/हे. छिड़काव करें।
(4) जाला इल्ली (Web caterpillar):
हल्के हरे रंग की इल्लियाँ पहले पत्रों की बाह्य त्वचा को खाकर जालीनुमा बना देती हैं। कुछ दिनों बाद इल्लियाँ फूल आने पर पत्तियों को जाले में गूँथ देती हैं, जिससे पौधे की वृद्धि एवं विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
Plant protection के उपाय :-
- जालीयुक्त पत्तियों को तोडकर नष्ट कर दें।
- फसल चक्रण: सरसों के बाद सरसों या अन्य क्रूसिफेरस फसलों को कम से कम 3-4 वर्षों के लिए न लगाएं।
- बैसिलस थुरिंगिएंसिस (बीटी): यह प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला जीवाणु वेब कैटरपिलर के लार्वा के खिलाफ प्रभावी होता है और मित्र कीटों के लिए न्यूनतम जोखिम पैदा करता है। युवा लार्वा निकलते समय पत्तियों पर बीटी का छिड़काव करें।
- क्लोरैन्ट्रानिलिप्रोल दवा 250-300 मिलीलीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
- फ्लुबेंडीमाइड(Flubendamide) 250-300 मिलीलीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
(5) सरसों का सफेद रतुआ या श्वेत किट्ट:-
सफेद रतुआ रोग प्रायः सभी जगह पाया जाता है, जब तापमान 10-18° सेल्सियस के आसपास रहता है तब पौधों की पत्तियों की निचली सतह पर सफेद रंग के फफोले बनते है। रोग की उग्रता बढ़ने के साथ-साथ ये आपस में मिलकर अनियमित आकार के दिखाई देते है। पत्ती को उपर से देखने पर गहरे भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते है। रोग की अधिकता में कभी-कभी रोग फूल एवं फली पर केकडे़ के समान फूला हुआ भी दिखाई देता है।
नियन्त्रण के उपाय :-
समय पर बुवाई (1-20 अक्टूबर) करें। बीज उपचार मेटालेक्जिल (एप्रॉन 35 एस.डी.) 6 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से करें। फसल को खरपतवार रहित रखें एवं फसल अवषेषों को नष्ट करें। अधिक सिंचाई न करें।
रिडोमिल एम जेड़ 72 डब्लू.पी. अथवा मेनकोजेब 1250 ग्राम प्रति 500 लीटर पानी में घोल बनाकर 2 छिड़काव 10 दिन के अन्तराल से 45 एवं 55 दिन की फसल पर करें।
अंत में, सरसों की अच्छी पैदावार के लिए सही समय पर बोनी और अनुशंसित संतुलित उर्वरक उपयोग के साथ समुचित पौध संरक्षण (plant protection) एक महत्त्वपूर्ण पहलु है. फसल की समय समय पर देखभाल करना उन्हें अच्छी तरह से बढ़ने में मदद करने के लिए महत्वपूर्ण है।
उन्हें कीड़ों और बीमारियों से बचाना भी महत्वपूर्ण है, और सही समय पर सही रसायनों का उपयोग वास्तव में मदद कर सकता है। अपनी फसल पर नज़र रखें, सरसो की बम्फर उत्पादन पाए और यदि आपको कोई समस्या दिखाई देती है , जल्दी से उनसे समय पर निवारण करें । अधिक परामर्श के लिए नजदीकी कृषि विभाग के अधिकारियों से सम्पर्क कर समस्या का निदान भी पाईये।
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