रागी की खेती (ragi ki kheti) आमतौर पर मोटे अनाज के लिए किया जाता है | इसे मंडुआ भी बोला जाता है | सामान्य तौर पर रागी का उपयोग अनाज के रूप में होता है,क्योकि यह ना सिर्फ स्वादिष्ट होता है बल्कि बहुत ही पौष्टिक भी होता है | इससे कई तरह के भारतीय व्यंजन भी बनाये जाते है | इस लेख में रागी की खेती (ragi ki kheti ), कब और कैसे करें ? जानकारी दी गयी है |
पहचान :-
तो दोस्तों ,ragi ki kheti , कब और कैसे करें ? जानने से पहले हम रागी (finger milets ) के बारे में पहले जानते है।
रागी का वानस्पतिक नाम एलुसानी कोराकैना Eleusine Coracana(linn.) है| यह पोएसी कुल का एकबीजपत्रीय पौधा है | रागी को और अन्य अनेक नामों मंडुआ,मकरा.मंडल,रोत्का, फिंगर मिलेट आदि नामों से जाना जाता है| रागी की खेती (Ragi ki kheti) अफीका व एशिया के सूखे क्षेत्रों में एक मोटा अनाज के रूप में किया जाता है | यह मूल रूप से इथोपिया के ऊँचे क्षेत्रों का पौधा है, जिसे भारत में लगभग चार हजार वर्ष पूर्व लाया गया था | भारत में कर्नाटक और आन्ध्रप्रदेश में सबसे अधिक रागी उत्पादन की उन्नत कृषि तकनीकी अपनाया जाता है और उपभोग भी |यह एक वर्ष में पककर तैयार होता है, इसका भण्डारण करना बेहद सुरक्षित है |
आहार पोषक तत्व की मात्रा :–
तो किसान भाइये आप रागी की खेती ( ragi ki kheti )क्यों करेंगे ? और भारत सरकार वर्ष 2023 को मिलेटस वर्ष क्यों घोषित किया है। तो आईये जानते है –
रागी जैसे मोटे अनाज ( finger milets )में अमिनो अम्ल मेथोनाइन पाया जाता है,जो अन्य स्टार्च वाले भोज्य पदार्थ में नहीं पाया जाता है |इसके प्रति 100 ग्राम मात्रा में प्रोटीन-7.3ग्राम, वसा-1.3 ग्राम, कार्बोहाइड्रेट-72 ग्राम, खनिज-2.7 ग्राम, कैल्शियम-3.44 ग्राम, रेशा-3.6 ग्राम और एनर्जी- 328 किलो कैलोरी पाई जाती है|
रागी में कैल्शियम की मात्रा अधिक पाए जाते है, इसलिए इसका उपयोग करने पर हड्डियां मजबूत होती है। इसमें प्रोटीन, वसा, रेशा व कार्वोहाइड्रेट्स भरपूर मात्रा में पाये जाते है जो कि बच्चों एवं बड़ों के लिये यह उत्तम आहार हो सकता है। इसमें महत्वपूर्ण विटामिन्स जैसे थायमीन, रिवोफ्लेविन, नियासिन एवं आवश्यक अमीनों अम्ल भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती है, जो कि विभिन्न शारीरिक क्रियाओं के लिये आवश्यक होते है। इसके साथ ही कैल्शियम व अन्य खनिज तत्वों की अधिकता होने के कारण ओस्टियोपोरोसिस जैसे बीमारियों में विशेष रूप से लाभदायक होता है। इसलिए वर्तमान समय में रागी की खेती (Ragi ki kheti) बहुत महत्त्वपूर्ण है |
इसमें मानव स्वास्थ के लिए आवश्यक सभी तत्व मौजूद है इसलिए पौष्टिक अनाज के श्रेणी में आता हैं जिसमे फाइबर, खनिज और अन्य आवश्यक पोषक तत्वों की भरपूर मात्रा उपस्थित हैं। मोटे अनाज ( finger milets ) को अक्सर विभिन्न प्रकार के व्यंजनों में उपयोग किए जाते हैं, जैसे दलिया, ब्रेड, और साथ ही अन्य डिश के रूप में भी पकाया जाता है। वर्तमान में मोटे अनाजों को दुनिया भर में व्यापक रूप से उगाया एवं भोजन में इस्तेमाल किया जा रहा है।
इसीलिए भारत की मांग पर संयुक्त राष्ट्र ने 5 मार्च 2021 को वर्ष 2023 को ‘इंटरनेशनल इयर ऑफ मिलेट’ घोषित किया था और भारत की इस मांग को दुनिया के 72 देशों का समर्थन भी किया। इसी कारण 3 मार्च 2021 को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा अपनाए गए एक संकल्प में 2023 को ‘इंटरनेशनल इयर ऑफ मिलेट’ घोषित करने का निर्णय लिया। इसके बाद कुछ दिनों पहले ही, संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (FAO) ने इटली के रोम में ‘इंटरनेशनल इयर ऑफ मिलेट-2023 (IYM-2023)’ की शुरुआत भी की है। इसलिए अब मोटे अनाजों ( finger millets) में रागी की खेती से किसानों के लिए अच्छी कमाई की जरिया बन सकती है।
आईये जानते है रागी की खेती (Ragi Farming)कैसे करें और रागी उत्पादन की उन्नत कृषि तकनीकी के लिए उपयुक्त जलवायु, भूमि की तैयारी ,बीज मात्रा, किस्में ,संतुलित उर्वरक उपयोग आदि के सम्बन्ध में –
उपयुक्त जलवायु :–
रागी की खेती (Ragi ki kheti ) के लिए शुष्क जलवायु वाले क्षेत्र उपयुक्त होती है | भारत में इसकी खेती खरीफ मौसम में किया जाता है | रागी की खेती के लिए अधिक बारिश की आवश्यकता नहीं होती है | इसे समुद्रतल से 2300 मीटर की उंचाई वाले क्षेत्र में आसानी से उगाया जा सकता है | बीजों के अंकुरण के लिए 20 से 22 डिग्री तापमान की आवश्यकता होती है और पौधों की विकास के लिए 30 डिग्री के आसपास तापमान की आवश्यकता होती है |
भूमि एवं खेत की तैयारी :-
रागी की खेती (Ragi Farming ) और अच्छी उपज के लिए कार्बनिक पदार्थयुक्त दोमट बलुई मिट्टी उत्तम होती है | वैसे इसे हर प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है , बशर्ते उचित जल निकास वाली भूमि होनी चाहिए | इसकी खेती के लिए भूमि का पीएच मान 5.5 से 8 के बीच में होनी चाहिए | बढ़िया जल निकास वाली काली मिट्टी में भी इसे उगाया जा सकता है |
रागी की खेती (Ragi ki kheti) के लिए ग्रीष्म मौसम में एक या दो गहरी जुताई जरुर करें | गर्मी में ही खेत से फसलों व खरपतवार के अवशेष को एकत्र कर नष्ट कर दें। मानसून प्रारम्भ होते ही एक बार खेत की एक या दो बार जुताई करके पाटा लगाकर समतल कर लें।
बीज मात्रा एवं उपचार :-
रागी की खेती (Ragi Farming ) के लिए बीज का चुनाव मृदा की किस्म के आधार पर करें। जहां तक संभव हो स्वस्थ ,स्वच्छ और प्रमाणित बीज का प्रयोग करें। किसान भाई, यदि स्वयं का बीज उपयोग में लाते है,तो बोआई पूर्व बीज को साफ करके फफूंदनाशक दवा जैसे कर्बेन्डाज़िम या कार्बोक्सिन से उपचारित करके बोवाई करें।
रागी की छिड़कवा विधि ,सीडड्रिल से अथवा रोपा पद्धति से बोआई की जाती है। छिड़कवा विधि या सीडड्रिल से बोवाई जून के अंतिम सप्ताह से मध्य जुलाई तक मानसून वर्षा होने पर की जाती है।
रागी की खेती (Ragi ki kheti) के लिए कतारों में बोआई करने हेतु बीज दर 8 से 10 किलो प्रति हेक्टेयर एवं छिड़कवा पद्धति से बोआई करने पर बीज दर 12-15 किलो प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है।
कतार पद्धति में बोवाई करने के लिए कतारों के बीच की दूरी 22.5 से.मी. एवं पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखे।
रागी की खेती (Ragi ki kheti)से अधिक उत्पादन लेने के लिए रोपाई हेतु नर्सरी में बीज मध्य जून से जुलाई के पहले सप्ताह तक डाल देना चाहिये। एक हेक्टेयर खेत में रोपाई के लिये 4 से 5 किलोग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है | नर्सरी से खेत में पौध की रोपाई 25 से 30 दिन की अवधि में करनी चाहिये।
उन्नत किस्में –
रागी की खेती (Ragi ki kheti) कर अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए विभिन्न अवधि वाली निम्नांकित किस्मों को अनुसंशित किया जाता है-
1. जी.पी.यू. 45:-
कम वर्षा वाली क्षेत्रों में रागी की खेती (Ragi Farming)के लिए जी.पी.यू.-45 जल्दी पकने वाली नयी किस्म है। इसकी पौधे हरे होते है एवं बालियाँ मुड़ी हुई निकलती है। यह किस्म 104 से 109 दिन में पककर तैयार हो जाती है एवं इसकी उत्पादन 27 से 29 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है यह झुलसन रोग के लिये प्रतिरोधी किस्म है।
2. चिलिका (ओ.ई.बी.-10):-
इस किस्म के पौधे हल्के रंग और पत्तियां चौड़ी होती है। इसके प्रत्येक बालियों में 6 से 8 उंगलियाँ होती है और बालियों का अग्रभाग मुड़ा हुआ होता है | दांने बड़े तथा हल्के भूरे रंग के होते है। यह किस्म 120 से 125 दिनों में पककर तैयार हो जाती है | इस किस्म की उपज क्षमता 26 से 27 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। यह किस्म झुलसन रोग एवं तना छेदक कीट के लिये प्रतिरोधी होती है।
3. शुव्रा (ओ.यू.ए.टी.-2):-
रागी के इस किस्म के पौधे की ऊंचाई 80-90 से.मी. होते है ,इसके प्रत्येक बालियों में 7-8 अंगुलियां लगती है। इसके बालियों की उगलियाँ 7-8 सेमी लम्बी होती है | इस किस्म की औसत उत्पादक क्षमता 21 से 22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। यह किस्म सभी झुलसन के लिये मध्यम प्रतिरोधी तथा पर्णछाद झुलसन के लिये प्रतिरोधी है।
4. भैरवी (बी.एम.9-1) :-
यह किस्म मध्यप्रदेश के अलावा छत्तीसगढ़, उड़ीसा, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश एवं महाराष्ट्र के लिये रागी की खेती (Ragi Farming ) के लिए उपयुक्त है। इसकी पत्तियां हल्की हरी होती है। इसके बालियों के अंगुलियों का अग्रभाग मुड़ा हुआ होता है | इस किस्म के दाने हल्के भूरे रंग के होते है। यह किस्म 103 से 105 दिनों में पककर तैयार हो जाती है तथा उत्पादन क्षमता 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। यह किस्म झुलसन व भूर धब्बा रोग तथा तना छेदक कीट प्रतिरोधी है।
5. व्ही.एल.-149 :-
मध्यप्रदेश की यह किस्म आँध्रप्रदेश और तमिलनाडू राज्य को छोड़कर देश के लगभग सभी राज्यों के मैदानी एवं पठारी भागों के लिये उपयुक्त है। इस किस्म के पौधों की गांठे रंगीन होती है,जबकि बालियां हल्की बैगनी रंग की होती है | इसके बालियों का अग्रभाग अंदर की ओर मुड़ा हुआ होता है। यह किस्म 98 से 102 दिनों में पककर तैयार हो जाती है |इसकी औसत उपज क्षमता 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। यह किस्म झुलसन रोग प्रतिरोधी है।
जे. एन.आर.852 :
इस किस्म की प्रत्येक बालियां में 8 -10 अंगुलियां होती है। यह मध्यम अवधि की किस्म है, लगभग 110 दिन में पककर तैयार हो जाती। इसकी औसत उत्पादन लगभग 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त होती है।
जे.एन.आर. 981-2 :
यह भी मध्यम अवधि की किस्म है और लगभग 100 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी औसत उपज 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
जे एन आर 1008 :
इस किस्म के दानों का रंग गुलाबी होता है। यह किस्म 100 से 110 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इस किस्म की उत्पादन क्षमता 20 से 22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
एच आर 374 :
यह माध्यम अवधि की किस्म है लगभग 100 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी औसत उपज 20 से 21 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
पी आर -202:
यह लगभग 100 दिन में पककर तैयार होने वाली किस्म है इससे 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन प्राप्त होती है।
जी. पी.यू.-45 :
यह रागी की नई किस्म है जो पककर जल्दी तैयार हो जाती है। इसके पौधे हरे होते है ,इसकी बालियां मुड़ी हुयी निकलती है। यह 104 से 109 दिनों में पककर काटने के लिए तैयार हो जाती है। इसकी उत्पादन क्षमता 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। यह किस्म झुलसन रोग के लिए प्रतिरोधी है।
खाद एवं उर्वरक उपयोग :-
रागी की खेती (Ragi ki kheti) से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए मृदा परीक्षण के आधार पर उर्वरकों का प्रयोग उत्तम होता है। असिंचित क्षेत्र में खेती के लिये 40 किलो नत्रजन व 40 किलो फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से अनुशंसित मात्रा का उपयोग करें |
बोनी पूर्व व खेत तैयारी के समय नत्रजन की आधी मात्रा व फास्फोरस की पूरी मात्रा खेत में डाल दें तथा नत्रजन की शेष मात्रा पौध अंकुरण के 21-25 दिनों बाद प्रथम निदाई के उपरांत समान रूप से खेत में डालें।
रागी की अच्छी उपज और मृदा स्वास्थ्य के लिए 15-20 गाड़ी (100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर)गोवर अथवा कम्पोस्ट खाद का लाभदायक पाया गया है। गोबर खाद डालने के बाद खेत को अच्छे से जुताई कर पता चलाकर समतल कर ले|
अन्तः शस्य क्रिया :-
अच्छी उत्पादन के लिए, रागी की खेती (ragi ki kheti) को बोआई के 45 दिन तक खरपतवारों से मुक्त रखना आवश्यक है| अन्यथा उपज में भारी गिरावट आ जाती है। अच्छी आमदनी के लिए, अच्छी उत्पादन भी आवश्यक है| अतः हाथ से एक निदाई करे, या तो बुआई के 3 सप्ताह के अंदर 2, 4 डी. सोडियम साल्ट (80 प्रतिशत) की एक किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें,इससे रागी फसल को चैड़ी पत्ती वाले खरपतवार से मुक्त किया जा सकते है।
रागी फसल को रोपाई के 21 दिन के अन्दर चौड़ी खरपतवार से मुक्त रखने के लिए भी 2, 4 डी. सोडियम साल्ट का भी उपयोग कर सकते है |पुनः बालियां निकलने से पूर्व एक और निंदाई करें।
फसल पद्धति:-
रागी की खेती (ragi farming ) से उच्च अनाज उपज प्राप्त करने के लिए असिंचित स्थिति के लिए रागी और अरहर का 4:1 के अनुपात में अंतर फसल प्रणाली की सिफारिश की जाती है। वैसे रागी की 8 कतारों के बाद अरहर की दो कतार बोना लाभदायक पाया गया है।
रोग संरक्षण :-
रागी की खेती (ragi ki kheti) में अच्छी उत्पादन के लिए कीट व्याधि का समय पर निदान आवश्यक है ,अन्यथा उत्पादन में गिरावट आ सकती है | रागी फसल में प्रमुख रूप से फफूंदजनित झुलसन एवं भूरा धब्बा रागी की रोग-व्याधियां का प्रकोप होता है जिनका समय पर निदान उपज में हानि को रोकता है.
(अ) झुलसन रोग :-
रागी की फसल पर फफूंदजनित झुलसन रोग का प्रकोप पौध अवस्था से लेकर बालियों में दाने भरने तक की अवस्था में हो सकता है। इस रोग के प्रकोप से संक्रमित पौधे की पत्तियों में आंख के समान धब्बे बन जाते है |ये धब्बे बीच में धूसर व किनारों पर पीले-भूरे रंग के होते है।
अनुकूल वातावरण में झुलसन रोग का प्रकोप बढ़ने पर धब्बे आपस में मिल जाते है और पत्तियों को झुलसकर सुख जाती है। इस रोग के प्रकोप से बालियों की ग्रीवा व अंगुलियों भी संक्रमित होता है। रोग के अधिक संक्रमण पर ग्रीवा का कुछ भाग या पूर्णरूप से काला पड़ जाता है और बालियों का संक्रमित भाग से टूटकर लटक जाती है या फिर गिर जाती है। साथ ही अंगुलियां भी संक्रमित होकर सूख जाती है | जिसके कारण इसकी उपज और गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है |
रोकथाम के उपाय –
बोवाई के पूर्व बीजों को फफूंदनाशक दवा कार्बेन्डाज़िम,मेन्कोजेब या इनके मिश्रण के 2 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें |
यदि खड़ी फसल पर रोग का प्रकोप दिखाई दे तो तत्काल कार्बेन्डाज़िम या कीटाजिन दवा 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी या तो फिर मेन्कोजेब दवा का 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिडकाव करें | परिस्थिति अनुसार 10 से 15 दिन के अंतर में पुनः छिडकाव करें|
रोग ग्रसित क्षेत्र में रोग प्रतिरोधी किस्मों जैसे जी.पी.यू. 45, चिलिका, शुव्रा, भैरवी, व्ही.एल. 149 का उपयोग करें।
(ब) भूरा धब्बा रोग :-
यह एक फफूंदजनित रोग है ,इसका संक्रमण पौधे की सभी अवस्थाओं में हो सकता है। इस रोग के प्रकोप से प्रारम्भ में पत्तियों पर छोटे-छोटे अंडाकार हल्के भूरे धब्बे बनते है| बाद में इनका रंग गहरा भूरा हो जाता है। संक्रमण बढ़ने पर ये धब्बे आपस में मिलकर पत्तियों को समय से पहले सुखा देते है। रोग ग्रसित पौधों की बालियों एवं दानों का उचित विकास नहीं हो पाता ,जिससे दाने सिकुड जाते है और उपज में कमी आती है।
रोकथाम के उपाय – बोवाई के पूर्व बीजों को फफूंदनाशक दवा कार्बेन्डाज़िम,मेन्कोजेब या इनके मिश्रण के 2 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें |
खड़ी फसल पर रोग का प्रकोप दिखाई दे तो तत्काल कीटाजिन दवा 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी या तो फिर मेन्कोजेब दवा का 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिडकाव करें | परिस्थिति अनुसार 10 से 15 दिन के अंतर में पुनः छिडकाव करें |
रोग रोधी किस्मों जैसे भैरवी का बोवाई के लिए चयन करें |
(स) मोज़ेक (मोटल स्ट्रीक ) :-
मोटल स्ट्रीक रोग के प्रारंभिक लक्षण फनल के पत्तों में छोटे-छोटे हरिमहीन हल्के-हल्के धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं। बाद में धब्बे आपस में जुड़कर एक छोटी लकीर सी बन जाती हैं। अधिक संक्रमण की स्थिति में पौधा पिला पड़ जाती है | संक्रमित पौधों में अविकसित शाखाएं और अविकसित टिलर निकलते है,जिसमे दाने बहुत कम भरते है और उपज में कमी आती है|
रोकथाम के उपाय –रोग ग्रसित पौधों को हटा दें |
रोग वाहक कीट के नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.6 एस.एल.दवा 150 मिली या ऐसीटामिप्रिड 150 ग्राम मात्रा को 500 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें | यदि आवश्यक हो तो 20 दिनों के अन्तराल पर दुबारा छिडकाव करें |
कीट प्रबंधन :-
(1) पिंक स्टेम बोरर(Pink Stem Borer) :-
कीट की पहचान – इस कीट अंडे गोलाकार सफ़ेद या मलाईदार सफ़ेद होती है | ये अंडे पत्ती के म्यान(शीर्ष) और पौधे के तने के बीच गुच्छों में होती हैं।
इसके लार्वा गुलाबी भूरे रंग के होते है जिनके सिर लाल भूरे रंग के के होते हैं। ओबेक्ट प्यूपा या तने के अंदर प्यूपा भूरा रंग के होते हैं।
इसके वयस्क घास के तिनके के रंग के समान होते हैं , जिसके अग्रभाग पर 3 काले धब्बे होते हैं और इसके पंखों में एक हल्की भूरी सफेद मध्य धारी होती है।
नुकसान के तरीका – इसके गुलाबी लार्वा तने में घुसकर अन्दर ही अन्दर खाकर नुकसान पहुंचाते है , जिसके कारण तना डेड हार्ट बन जाता है |
उपज :-
यह क्षेत्र और किस्म के आधार पर 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर अनाज के रूप में और 60 से 80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर चारा प्राप्त करना संभव है। रागी का भूसा पशुओं के लिए पौष्टिक चारा भी बनाया जाता है।
FAQ –
(1) रागी को किन-किन नामों से जाना जाता है ?
उत्तर :- रागी को, नाचनी , मकरा ,मंडुआ को मडुआ और इंग्लिश में फिंगर मिलेट के नाम से जाता है।
(2) रागी को सुपर फ़ूड क्यों कहा जाता है ?
उत्तर :- रागी में कैल्शियम, प्रोटीन , वसा, रेशा व कार्वोहाइड्रेट्स भरपूर मात्रा में पाये जाते है जो कि बच्चों एवं बड़ों के लिये यह उत्तम आहार हो सकता है। इसमें महत्वपूर्ण विटामिन्स जैसे थायमीन, रिवोफ्लेविन, नियासिन एवं आवश्यक अमीनों अम्ल भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती है, जो कि विभिन्न शारीरिक क्रियाओं के लिये आवश्यक होते है। इसके साथ ही कई बीमारियों में विशेष रूप से लाभदायक होता है। इसलिए रागी को सुपर फ़ूड कहा जाता है।
(3) रागी में पोषक तत्त्वों की कितनी कितनी मात्रा होती है ?
उत्तर :- रागी के प्रति 100 ग्राम मात्रा में प्रोटीन-7.3ग्राम, वसा-1.3 ग्राम, कार्बोहाइड्रेट-72 ग्राम, खनिज-2.7 ग्राम, कैल्शियम-3.44 ग्राम, रेशा-3.6 ग्राम और एनर्जी- 328 किलो कैलोरी पाई जाती है|