Tivda ki Kheti: कृषि का अनुपम तरीका।

Tivda ki Kheti उतेरा के रूप में कृषि का अनुपम तरीका।

रबी मौसम में Tivda ki Kheti छत्तीसगढ़ में उतेरा के रूप में की जाती है। तिवडा (लाखडी) छत्तीसगढ़ की प्रमुख दलहनी फसल है। क्षेत्रफल के आधार पर धान के बाद सबसे अधिक रकबा इस फसल के अन्तर्गत आता है। छत्तीसगढ़ राज्य में धान आधारित कृषि में इस फसल की अहम भूमिका है।

Tivda-ki-Kheti
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छत्तीसगढ़ प्रदेश में सिंचाई के सीमित संसाधन होने के कारण द्विफसलीय कृषि पद्धति का अनुपम तरीका के किसान, उतेरा के रूप में दीर्घकाल से अपनाते चले आ रहे हैं। वैसे तो उतेरा के रूप में दलहन और तिलहन की अनेक फसले ली जाती हैं, किन्तु तिवडा उनमें सफलतम होने के कारण आज भी इसकी खेती की जाती है। उतेरा में बीज के अलावा अन्य सस्य क्रियाएँ न अपनाने के कारण इसकी औसत पैदावार बहुत कम है।

तिवड़ा दाल का उपयोग :

वैसे Tivda ki Kheti का मुख्य उद्देश्य है कि इसका उपयोग आमतौर पर दाल एवं बेसन के रूप में किया जाता है। तिवडा की दाल बनाने के पूर्व ठण्डे या गर्म पानी में उपचारित कर लेने पर तिवडा पर विद्यमान अपोषक तत्व की मात्रा को कम किया जा सकता है। इसमें विद्यमान अपोषक तत्व पानी में घुलनशील हैं इसलिये दाल बनाने के पूर्व तिवडा को सामान्य पानी में 6 घण्टे भिगोकर रखने तथा उसके बाद धूप में सुखाकर दाल बनाने पर 25 प्रतिशत तक अपोषक तत्वों की मात्रा कम हो जाती है। इसी तरह तिवडा को गुनगुने (50 डि. से.) पानी में 3 घण्टे तक भिगोने व सुखाने के बाद दाल बनाने पर 40 प्रतिशत तक अपोषक तत्व की मात्रा कम हो जाती है।

अनुसंधान से स्थापित हो चुका है कि ओ.डी.ए.पी. की सबसे ज्यादा मात्रा तिवडा बीज के भ्रूण में पाया जाता है। दाल बनाने से भ्रूण एवं छिलका अलग हो जाने से 4.3 प्रतिशत ओ.डी.ए.पी. की मात्रा पुनः कम हो जाती है। इसी प्रकार दाल पकाने के पूर्व, दाल को ठण्डे पानी में भिगोकर आधा घण्टा के लिये रख दें तथा पकाने से पूर्व इस पानी को निधार देने से हानिकारक तत्व कम हो जाता है। इसी तरह यदि प्रेशर कुकर से दाल पका रहे हैं तो दाल को आधा पकाने के बाद पानी को अलग कर दें और दूसरा गर्म पानी लेकर दाल पकाएँ। इन तरीकों को अपनाने से अपोषक तत्व की मात्रा करीब 80 से 90 प्रतिशत तक कम हो जाती है।

सब बातों के साथ-साथ ध्यान रखा जावे कि तिवड़ा का उपयोग दाल व बेसन के रूप में किया जावे और सुरक्षित इस्तेमाल करें। नियमित तथा अधिक मात्रा में इसका उपयोग न किया जावे। तिवड़ा दाल को अन्य दालों के साथ मिलाकर खा सकते हैं। नवीन किस्मों का प्रयोग ज्यादा करें।

तिवड़ा दाल को चना या अरहर के साथ 1:4 अनुपात में मिलाकर इस्तेमाल करना अधिक सुरक्षित है। विभिन्न विधियों का प्रयोग करके तिवड़ा में पाये जाने वाले अपोषक तत्व, जो एक प्रकार की विषाक्तता पैदा करते हैं, को आसानी से कम या दूर करके खाने योग्य बनाया जा सकता है।

Tivda Unnat kheti:-

वैसे Tivda ki Kheti दाल के लिए किया जाता है। तिवडा में 25-28 प्रतिशत तक प्रोटीन के साथ-साथ अन्य उपयोगी पोषक तत्व पाये जाते हैं किन्तु इसके दानों में बीटा एन. ऑक्सीलाइल एल. 2,3 डाई अमीनो प्रोपियोनिक अम्ल (ओ.डी.ए.पी. ) नामक अपोषक तत्व एक अभिशाप के रूप में पाया जाता है।

वैज्ञानिकों के अनुसार तिवडा की अधिक मात्रा का सतत सेवन करने पर पैरों की माँसपेशियों के स्नायु तंत्र विपरीत असर डालता है और एक प्रकार का लँगडापन, जिसे लेथरिज्म कहते हैं, होने का अंदेशा रहता है। चूँकि देश में खाद्यान्न की सुखद स्थिति होने के कारण वर्तमान में कोई भी व्यक्ति अत्यधिक मात्रा में तिवडा का सेवन नहीं किया जाता है।

इसके साथ ही Tivda ki Kheti को ध्यान में रखते हुए नवीन किस्मों का विकास किया जा चुका है, जिनमें उक्त अपोषक (हानिकारक तत्व की मात्रा नगण्य रह गई है, जिसे निरंक करने के प्रयास इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर द्वारा किये जा रहे हैं। अब उन्नत तकनीकी अपना कर एवं नवीन किस्मों को बोवाई या उतेरा कर इसकी पैदावार बढ़ाई जा सकती है।

Tivda ki Kheti के लिए भूमि तयारी :

तिवड़ा फसल की खेती (Tivda ki Kheti) तिवड़ा की के लिये डोरसा एवं कन्हार भूमि उत्तम है। उतेरा भी सामान्यतः डोरसा और कन्हार भूमियों में बोया जाता है। इस फसल के अच्छे अंकुरण एवं अधिक उत्पादन के लिये खेत साफ-सुथरा तथा मिटटी भुरभुरी होनी चाहिए।

वैसे इसकी उतेरा के लिए धान खड़ी फसल दूध भरकर पकने की अवस्था वाली खेत में अच्छी नमी की स्थिति में डाले। यदि आप बोवाई करना चाहते है ,तो इसके लिये ओल (बतर) आने पर 2-3 बार जुताई करें तथा पाटा चलाकर खेत की मिटटी को समतल करना चाहिए।उसके बाद बोवाई करें।

उन्नत नवीन किस्में :

अब तिवड़ा की खेती (Tivda ki Kheti) के लिए उन्नत नवीन किस्मों का रिसर्च किया गया है क्योकि देशी किस्मों में तिवड़ा के दानों में एक हानिकारक तत्व (ओ.डी.ए.पी.) पाया जाता है, जिसके कारण मानव के पैरों में लेथरिज्म नाम की बीमारी होने का अंदेशा रहता है।

स्थानीय किस्मों में इसकी मात्रा आमतौर पर 1 प्रतिशत से अधिक पाई जाती है, जबकि नवीन किस्मों में इसकी मात्रा कम होती है। अतः नवीन किस्में महातिवडा, रतन व प्रतीक, जिनमें हानिकारक तत्व कम है, को लगाना चाहिए।

रतन –

यह किस्म का विकास ऊतक संवर्धन विधि से भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा वर्ष 1997 में किया गया है । वैसे छत्तीसगढ़ के विभिन्न क्षेत्रों में किये गये परीक्षणों में इस किस्म की औसत उत्पादकता 1300 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर तथा उत्तेरा में 636 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर पाई गई। इसमें अपोषक (हानिकारक) तत्व की मात्रा 0.10 प्रतिशत से कम तथा प्रोटीन की मात्रा 27.82 प्रतिशत पाई जाती है।

इस किस्म के पौधे ऊँचे, पत्तियाँ चौडी व हरी, फल्लियाँ बड़ी तथा दाने बड़े आकार के आते है। इस किस्म की विशेषता है कि इसकी फल्लियों पकने के उपरान्त भी झडती नहीं हैं, जबकि स्थानीय किस्मों में यह दोष पाया जाता है। इस किस्म में वृद्धि अच्छी होने से जानवरों के लिये पौष्टिक भूसा मात्रा में मिलता है। इस किस्म के पकने की अवधि 105 से 110 दिन होती है।

प्रतीक –

तिवडा की इस किस्म का विकास एल.एस.-8246 तथा ए 60 के वर्ण संकरण विधि से इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर द्वारा वर्ष 1999 में विकसित किया गया है। इस किस्म में हानिकारक तत्व की मात्रा नगण्य (0.076 प्रतिशत) है। Tivda ki Kheti के लिए यह उपयुक्त किस्म है।

इस किस्म के पौधे गहरे हरे रंग के 50-70 से.मी. ऊँचाई के होते हैं। दाने बड़े आकार एवं मटमैले रंग के आते हैं। पकने की अवधि 110-115 दिन तथा औसत उपज 1275 कि. ग्रा. (बोता) एवं उतेरा में 906 कि.ग्रा. है यह किस्म डाउनी मिल्ड्यू रोग के प्रति सहनशील है।

महातिवड़ा :-

तिवड़ा की यह किस्म गुलाबी फूलों वाली तथा कम ओ.डी.ए.पी., बड़ा दानों वाली (लाख) किस्म है इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर से विकसित यह किस्म 2008 में जारी की गई। यह 90-100 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उत्पादन बोता खेती में 12-14 क्विं./हे. तथा 7-8 क्विं./हे. उतेरा खेती उत्पादकता वाली किस्म है। यह भभूतिया रोग निरोधक है। इस किस्म में प्रोटीन 28.32 प्रतिशत तक पाया जाता है।

बीज की मात्रा एवं बीजोपचार:-

Tivda ki Kheti की खेती के लिए उतेरा पद्धति में 90 किलोग्राम तथा बतर बुवाई में 40-45 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता पड़ती है। बीज को बुवाई के पहले 3 ग्राम थायरम या बाविस्टिन या कन्टाफ (1.5 ग्राम) फफूँदनाशक प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से बीजोपचार करें।

बीजोपचार के बाद बीज को राइजोबियम एवं पी. एस.बी. कल्चर 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें। एक एकड के लिये आवश्यक बीज ले तथा पानी के हल्के छींटे देकर बीज को नम करें, फिर कल्चर को बीज पर छिड़क कर अच्छी तरह मिलावे बीज छाया में सुखाएँ तथा शीघ्र ही बोयें उपचारित बीज को धूप में न सुखाएँ।

बुवाई का समय एवं तरीका :-

Tivda ki Kheti के लिए खेत की अच्छी तरह से तैयारी करने के बाद दुफन व देशी नारी हल अथवा सीड ड्रिल से बुवाई करें। कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. रखना चाहिए। यथासंभव बुवाई के लिये दो चाड़ी वाले नारी हल का उपयोग करें। आगे वाली धाडी से खाद तथा पीछे वाली चाडी से बीज को डालना चाहिए।

उतेरा बोनी :-

दोस्तों, छत्तीसगढ़ प्रदेश में सिंचाई के सीमित संसाधन होने के कारण यहाँ के किसान Tivda ki Kheti उतेरा पद्धति से दीर्घकाल से अपनाते चले आ रहे हैं। वैसे तो उतेरा के रूप में Tivda ki Kheti के अलावा दलहन में मूँग एवं उड़द तथा तिलहन में अलसी और सरसों की फसलें ली जाती हैं, किन्तु तिवड़ा उनमें कम लागत की अतिरिक्त फसल होने के कारण आज भी इसकी खेती बड़े क्षेत्र में की जाती है।

चूँकि उतेरा पद्धति से Tivda ki Kheti में अन्य सरय क्रियायें एवं पौध संरक्षण उपाय न अपनाने के कारण इसकी औरसत पैदावार अत्यन्त कम होती है। इस पद्धति में उपरोक्त फसलों के बीज को धान की खड़ी फसल में छिड़क दिया जाता है तथा लगभग 20-25 दिनों बाद धान की कटाई की जाती है। धान की कटाई के समय तक उत्तेरा फसल अंकुरित होकर दो से तीन पत्ती वाली अवस्था में आ जाती है। तिवडा की उतेरा खेती मुख्यतः डोरसा एवं कन्हार भूमियों में की जाती है।

उर्वरक की मात्रा :-

तिवड़ा फसल (Tivra crop) के लिये 20 किलो नत्रजन, 40 किलो स्फुर, 20 किलो पोटाश एवं 20 किलो गंधक प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के पहले कूड़ों में दें। इसके पश्चात शाखा निकलते समय तथा फलियाँ बनते समय 2 प्रतिशत यूरिया का छिड़काव करे जिससे अधिकतम उत्पादन प्राप्त किया जा सके।

पौध संरक्षण :

तिवड़ा की खेती से अच्छी कमाई के लिए तिवड़ा फसल पर कीट व्याधि का प्रकोप से बचाव के लिए समय समय निगरानी करना आवश्यक है ,विशेषकर फूल आने की अवस्था में।

रोग प्रबंधन :-

(1) भभूतिया या पाउडरी मिल्ड्यू :-

पाउडरी मिल्ड्यू रोग इरीसाइफी पोलीगोनी फफूँद द्वारा होता है।

लक्षण :

  1. इस रोग के प्रकोप से तिवड़ा फसल के पौधों की पत्तियों पर सफेद रंग के छोटे-छोटे धब्बे पाये जाते हैं।
  2. ये धब्बे बाद में आपस में मिलकर सम्पूर्ण पत्ती को सफेद चूर्ण से ढक लेते हैं।
  3. इस रोग का अत्यधिक प्रकोप होने पर पूरा पौधा सफेद दिखता है तथा कुछ समय बाद सूख जाता है।

प्रबंधन :-

तिवड़ा फसल पर पाउडरी मिल्ड्यू रोग के नियंत्रण हेतु घुलनशील गंधक (सल्फेक्स) 3 ग्राम प्रति लीटर पानी या कार्बेन्डाजिम (बाविस्टिन) 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। रोग की तीव्रता के अनुसार 2 से 3 बार 10 से 15 दिन के अंतराल पर करना चाहिए।

(2) मृदुरोमिल आसिता (डाउनी मिल्ड्यू):-

डाउनी मिल्ड्यू रोग पेरेनोस्पोरा लेथायरी पेलेस्ट्रीस फफूँद द्वारा होता है।

लक्षण :-

  1. डाउनी मिल्ड्यू रोग से ग्रसित पत्तियों की ऊपरी सतह पर भूरा धब्बा दिखाई देता है, जिसका मध्य भाग कुछ हल्के रंग का होता है।
  2. उन्हीं धब्बों के ठीक नीचे मटमैले रंग की फफूँद की रचनाएँ दिखाई देती हैं।
  3. रोग की गंभीर अवस्था में पत्तियों तथा तना भूरा हो जाता है ,जिसके कारण अन्त में पौधा सूख जाता है।

प्रबन्धन :

तिवड़ा फसल पर डाउनी मिल्ड्यू रोग के नियंत्रण हेतु ताम्रयुक्त फफूंदनाशक दवा (ब्लाइटॉक्स 50 या फाइटोलान) या मेन्कोजेब (डायथेन एम-45) 3- ग्राम दवा प्रति लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें। अधिक प्रकोप की स्थिति पर 10 से 15 दिन के अन्तर पर दो से तीन बार छिड़काव करने से रोग का प्रभावकारी नियंत्रण होता है। इसकी नियंत्रण हेतु रोग अवरोधी किस्म प्रतीक लगायें।

कटाई -गहाई :

फसल हलकी पीली पड़ने पर कटाई करें। अधिक पक जाने पर फलियाँ चटकने लगती है। फसल की गहाई कर दानों को अच्छी तरह सुखाकर भंडारण करने पर धुन नहीं लगते है।

उपज :

उतेरा से Tivda ki Kheti करने पर 4 से 6 क्विंटल प्रति हेक्टेयर जबकि बतर से बोवाई करने पर 10 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन प्राप्त होती है।

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